निरन्तर का जुलाई अंक हस्बे-मामूल (as usual) भारतीय समय के अनुसार महीने के पहले दिन का सूर्य उगने से पहले उदित हुआ है। निरन्तर के पूरे दल ने लगन से पूरा महीना काम किया और अन्त में देबाशीष ने पूरे मसौदे का समन्वय किया। निरन्तर के दल का सदस्य होने के नाते जो कुछ सृजनात्मक कार्य करने का अवसर मिलता है, उस से तो मैं स्वयं को भाग्यशाली समझता ही हूँ, इस के अतिरिक्त मुझे एक और लाभ यह होता है कि मैं निरन्तर में छपने वाले हर लेख, हर कहानी, हर कविता को अक्षरशः पढ़ता हूँ। हर लेख से कुछ न कुछ नया जानता हूँ, कुछ न कुछ नया समझता हूँ। उदाहरणतः नियमित स्तंभ “कड़ी की झड़ी” को ही लीजिए। जाने कहाँ कहाँ से हुसैन कड़ियाँ ढूँढ लाते हैं, हर कड़ी रोचक और ज्ञानवर्धक होती है। इसी प्रकार फुरसतिया, आँखन देखी, समस्या पूर्त्ति, आदि हर स्तंभ में कुछ नया मिलता है।
जुलाई अंक में विशेष
– आमुख कथा में गोरेपन की क्रीमें और विज्ञापन कैसे बनते हैं
– निधि में सरकारी हिन्दी पैकेज की आलोचना, और वर्डप्रेस और फायरफॉक्स पर लेख
– वातायन में देबाशीष, उमेश शर्मा, प्रेम पीयूष की कविताएँ और रवि का व्यंग्य और पुस्तक समीक्षा
और भी बहुत कुछ है निरन्तर के जुलाई अंक में – नज़रिया, हास परिहास, चिट्ठा चर्चा, उन के श्रीमुख से, आबो-हवा, और इस बार तो नई महफिल जमी है निरन्तर पर, और वह है महफिल-ए-मिर्ज़ा। पढ़िए निरन्तर और दोस्तों को भी बताइए।
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