जब कार में अकेला सफ़र कर रहा होता हूँ, विशेषकर सुबह दफ़्तर जाते और शाम को वापस आते, तो मेरी पसन्द का रेडियो स्टेशन रहता है NPR (यानी नैश्नल पब्लिक रेडियो)। शायद यही एक स्टेशन है जिस पर विज्ञापन नहीं आते, और समाचार व अन्य चर्चा दिन भर चलती रहती है। देश भर में इससे जुड़े लोकल स्टेशन्ज़ हैं जो राष्ट्रीय और स्थानीय कार्यक्रमों का अच्छा मिश्रण प्रस्तुत करते हैं। पब्लिक रेडियो कहलाने पर भी यह सरकारी रेडियो नहीं है। विज्ञापन नहीं देता, सरकारी नहीं है, तो फिर चलता कैसे है? यह चलता है श्रोताओं के चन्दे से। साल में तीन चार बार, इनका चन्दे वाला हफ़्ता चलता है, जब ये लोग सामान्य कार्यक्रमों के बीच में चन्दा माँगते हैं लोगों से, और लोग देते भी हैं पैसा — कुछ कंपनियाँ भी ख़ासा पैसा देती हैं और चोर दरवाज़े से उनका विज्ञापन भी हो जाता है, या थोड़ा कार्यक्रमों पर असर रहता है। ख़ैर वे दिन बड़ी बोरियत के होते हैं। ख़ुशक़िस्मती से मेरा रेडियो इलाक़े में दो-तीन NPR स्टेशन पकड़ता है और सभी का चन्दा हफ़्ता एक साथ नहीं चलता, इसलिए स्टेशन बदल लेता हूँ।
कहना दरअसल कुछ और है। पीछे सं॰ रा॰ अमरीका में हुए चुनाओं के दौरान NPR पर हुई एक चर्चा के बारे में बात करना चाहता हूँ। बात चल रही थी, देश में लोगों पर, और विशेषकर मतदाताओं पर धर्म का कितना प्रभाव है, उस पर। चुनाव प्रचार के दौरान दोनों उम्मीदवार (बुश और केरी) इस बात की स्पर्धा में थे कि कौन अधिक धार्मिक है। बुश का गॉड पर विश्वास तो जग ज़ाहिर था ही, केरी भी इस परेशानी में थे कि कहीं उनके लिबरल विचारों के चलते लोग उनको नास्तिक न मान लें। इसलिए वे भी अपने चर्च के साथ रिश्ते को मतदाताओं को बार बार याद दिलाते रहते थे। उन्हीं दिनों कोई सर्वे हुआ था जिसका नतीजा यह था कि अधिकतर मतदाता यही चाहेंगे कि राष्ट्र का नेता कैथॅलिक हो, तब भी ऐसे लोगों की कमी नहीं थी जो प्रोटेस्टंट राष्ट्रपति को मान लें, यहूदी, यहाँ तक कि मुस्लिम राष्ट्रपति को भी कबूल करने को तैयार थे। पर सर्वे किए गए लोगों में कोई ऐसा नहीं था जो ऐसे राष्ट्रपति को स्वीकार करता, जिसका भगवान में विश्वास न हो। इस सब के बारे में कुछ चर्चा यहाँ पर है। NPR का विशेषज्ञ कह रहा था कि इस मामले में हम अमरीकी, यूरोप के देशों से कितना पीछे हैं, शायद इस मामले में हमारी तुलना यूरोपीय देशों से कम और भारत से ज़्यादा की जा सकती है।
इस तुलना के बारे में मैंने जितना सोचा उतना मुझे अजीब लगा। अमरीका में उसके बाद क्या हुआ वह तो अब हिस्ट्री है। बुश की चुनावी सफलता के कारणों में अच्छा खासा असर था ऐसे अभियानों का जिसमें लोगों को डराया गया कि डैमोक्रैट तुम्हारी बाइबलें छीन लेंगे, वग़ैरा वग़ैरा। इसके अतिरिक्त अभी तक अमरीकन लोग अपने ढ़ाई सौ वर्ष के इतिहास में यह नहीं कर पाए हैं कि किसी स्त्री, श्यामवर्णी या अन्य किसी अल्पसंख्यक को राष्ट्र की बागड़ोर सौंपें। और भारत से अपनी तुलना करते हैं। कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली।
अब देखिए विश्व की लार्जेस्ट डेमोक्रेसी भारत में क्या होता है। वाराणसी के घाटों पर भीड़ और अहमदाबाद के दंगों को देख कर पश्चिम के लोग भारत को एक धर्म-प्रधान देश भले ही समझें पर राष्ट्रीय नेताओं के चुनाव के मामले में भारत ने जो वेराइटी और धार्मिक उदासीनता दिखाई है, वह शायद ही कोई अन्य देश दिखा सकता है, और उसके लिए मुझे गर्व की ही अनुभूति होती है। भारत के पहले प्रधान मन्त्री नेहरूजी जन्म से भले ही ब्राह्मण रहे हों पर विचारों से स्वघोषित नास्तिक थे। उनकी धर्म के प्रति विचारधारा उनके बार बार चुने जाने में कभी आड़े नहीं आई। इन्दिरा जी पारसी (या मुस्लिम?) से विवाह के कारण पारसी हुईं, या जो हो, हिन्दू तो नहीं कहलाई जा सकतीं। बीच में प्रधान-मन्त्री आते जाते रहे, फिर राजीव जी भी पारसी ही हुए, जिनका विवाह एक ईसाई स्त्री से हुआ था (छोटे भाई संजय की पत्नी सिख थी)। यानी परिवार एक, पर धर्म इतने सारे। और अबके लोगों ने एक ईसाई स्त्री को सर्वाधिक समर्थन दिया, जिसने एक सिख-धर्मावलंबी को प्रधान-मन्त्री बनाया। यानी हिन्दू कहलाए जाने वाले भारत में “धर्मपरायण” हिन्दू प्रधान-मन्त्री कुछ गिने चुने सालों के लिए ही रहे हैं। बीच बीच में आने वाले प्रधान मन्त्री हिन्दू होते हुए भी अपनी आस्तिकता का ढ़ोल तो नहीं पीटते थे (तान्त्रिकों के चक्कर भले ही काटते हों :-))। किस मुंह से अमरीकी अपनी तुलना भारत से कर सकते हैं, इस मामले में (बाक़ी मामलों की मैं बात नहीं कर रहा, भाई)। राष्ट्रपति भी पिछले अर्ध-शतक में कम से कम चार ऐसे रहें हैं जो अल्पसंख्क समुदाय से थे। कहीं ऐसा होता है क्या भइया? अमरीका में तो नहीं।
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