बाल्टिमोर सन के कागज़ी संस्करण में भारतीय विद्यार्थियों का एक चित्र देखा तो उत्सुकता हुई। रिपोर्ट थी भारतीयों में क्रिकेट प्रेम के बारे में, कि किस प्रकार यहाँ के भारतीय विद्यार्थी समुदाय में उत्साह है इस खेल के बारे में जिस के बारे में अन्यथा कोई कुछ नहीं जानता यहाँ। तब ध्यान आया कि भारत पाक शृंखला शुरू हो चुकी है और फटाफट याहू क्रिकेट पर जा कर नतीजा पता किया पहले मैच का। नतीजा वही था जो अक्सर टेस्ट मैचों में होता है — ठन ठन गोपाल। अब तो उतनी उत्सुकता भी नहीं रहती क्रिकेट समाचार के बारे में जब तक विश्व कप शृंखला जैसा कुछ महत्वपूर्ण न हो रहा हो — या फिर भारत और पाकिस्तान के बीच में कोई काँटे की टक्कर का मैच हो रहा हो। यूँ तो क्रिकेट हमें इतना रोचक और रोमांचकारी लगता है, पर क्या कारण है कि अँग्रेज़ों के पूर्वशासित क्षेत्रों के बाहर इसे कोई नहीं जानता? यहाँ तक कि आस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड और इंगलैंड में भी वह दीवानापन नहीं है क्रिकेट के प्रति, जो हमारे उपमहाद्वीप में है। मैं ने सुना है कि यदि रिचर्ड हेडली न्यूज़ीलैंड की सड़क पर चल रहा हो तो उसे कोई नहीं पहचानेगा। तेन्दुलकर तो शायद वाशिंगटन में भी अनजान हो के नहीं चल सकता — यदि आसपास कोई भारतीय हो। क्या क्रिकेट हमारे बाकी खेलों पर और विश्व स्तर पर हमारी खेल-क्षमता पर परछाई बन कर नहीं खड़ा हुआ? ओलंपिक खेलों से हमारे इतने बड़े देश की टीमें खाली हाथ लौट आती हैं, जब कि यहाँ बाल्टिमोर का एक तैराक माइकल फेल्प्स अकेला आठ पदक जीत लाया।
हमारा क्रिकेट प्रेम
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गुलामी की आदत इतनी जल्दी कैसे खून से जायेगी? खासतौर से जब ये मानसिक हो!
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गुलामी की आदत इतनी जल्दी कैसे खून से जायेगी? खासतौर से जब ये मानसिक हो!
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