भारतीय मुद्रा बदलने का रजनीश का सुझाव विचारणीय तो है, पर मेरे विचार में इस का उत्तर है — नहीं। अर्थशास्त्र पर अपनी पकड़ वैसे बहुत कमज़ोर है, इसलिए डिस्क्लेमर पहले सुना दूँ — इस विषय पर व्यक्त किए गए मेरे विचार पूर्ण रूप से व्यक्तिगत और अव्यवसायिक हैं, और पढ़ने वाला किसी भी नतीजे पर पहुँचने के लिए अपनी सोच खुद सोचे।
मुद्रा बदलने का विचार शायद रजनीश को “रोटी कपड़ा और मकान” के “हाय महंगाई…” गाने की यह लाइन सुन कर आया होगा
पहले मुट्ठी में पैसे दे कर थैला भर शक्कर आती थी,
अब थैले में पैसे जाते हैं, मुट्ठी में शक्कर आती है।
एक और डायलाग याद आता है एक पाकिस्तानी हास्य ड्रामा से। भारत में केबल-टीवी के सैलाब से पहले एक छोटा सा दौर आया था जब वीडियो लाइब्रेरियों का चलन हो गया था — अस्सी के दशक के उत्तरार्ध में। उन दिनों पाकिस्तान की स्टेज कॉमेडियों के विडियो बड़े मशहूर हो गए थे। “बकरा किस्तों पे” जैसे इन नाटकों में हास्य तो बड़ा भौंडा होता था, पर हंसी खूब आती थी। एक ड्रामा में उमर शरीफ़ कुछ ऐसे कहता है, “अमरीकी डालर ४० (पाकिस्तानी) रुपये का है, इस का मतलब एक अमरीकी अपने मुल्क से ४० गुना ज़्यादा मुहब्बत करता है।”
खैर मज़ाक को परे रख कर, मुझे नही लगता कि मुद्रा बदलने की बात वाजिब है। पहली बात तो यह कि केवल अमरीकी डालर या यूरो से तुलना करना सही नहीं है। आज की तारीख में एक अमरीकी डॉलर ११४ जापानी येन के बराबर है, यानी येन भारतीय रुपए से भी सस्ता है। इस का मतलब यह तो नहीं कि येन एक कमज़ोर मुद्रा है और इसे बदल देना चाहिए। यही हाल यूरोप की समान मुद्रा बनने से पहले इटली के लीरा और अन्य कुछ यूरोपीय मुद्राओं का था।
जो मुद्रास्फीति होती है, उस के हिसाब से मुद्रा स्वयं को निर्धारित करती ही है। हमारे बचपन में १,२ और ५ पैसे के सिक्के नज़र आते थे, पर अब चवन्नी अठन्नी के इलावा सारे सिक्के ग़ायब हैं। इसी तरह छोटी कीमत की मुद्रा ग़ायब होती जाती है, और शायद जल्द ही रुपये से छोटी मुद्रा मिलेगी ही नहीं। ऐसे में रुपये को १०० से भाग कर के पैसे के बराबर कर देना, और १०० रुपये को १ रुपया बना देना नाम के लिए तो रुपये को कीमती बनाएगा, पर लोगों की क्रय शक्ति (या अशक्ति) पर कोई असर नहीं होगा। कीमतें कम होंगी तो तनख्वाहें भी कम हो जाएँगी, और जो महा-कन्फ्यूजन होगा वह अलग। अभी कुछ तो दबाव है कि आज यदि डॉलर ४४ रुपये का है तो कल ४२ का हो जाए, फिर तो वह भी खत्म हो जाएगा। और फिर महंगाई और मुद्रास्फीति तो बढ़ती रहेगी, कितनी बार पुनर्मूल्यांकन करते रहेंगे।
हाँ, मुद्रा की कीमत कम होने से कुछ तो दिक्कत होती ही है। कुछ वर्ष पहले मैं हंगरी गया था, तो बुदापेश्त में एयरपोर्ट से होटल का भाड़ा ५००० फोरिंट के करीब दिया था, जो उस समय २०-२५ डॉलर के करीब था। हफ़्ता भर वहाँ था, तो जेब नोटों से भरी रखनी पड़ती थी। पर यहाँ अमरीका में वही हाल रेज़गारी के साथ होता है। यदि कुछ भी नकदी से खरीदें तो वापसी में बहुत सी रेज़गारी मिलती है, क्योंकि एक-एक सेंट का हिसाब होता है। जेब उस से भारी हो जाती है। गैस (पैट्रोल) का दाम तो यहाँ सेंट के दहाई हिस्से में गिना जाता है, यानी आज की कीमत है २ डॉलर १९.९ सेंट प्रति गैलन। शुक्र है कि टोटल को नज़दीक के सेंट में राउंड ऑफ कर दिया जाता है।
भविष्य की मुद्रा तो शायद प्लास्टिक और इंटरनेट ही रहेगी। यानी जहाँ तक हो सके क्रेडिट कार्ड, डेबिट कार्ड से काम चलाओ, इंटरनेट से सारे भुगतान करो। नोटों और रेज़गारी का झंझट ही नहीं। यहाँ तो हमारे साथ वही होता है। नकदी की ज़रूरत बहुत ही कम पड़ती है। पर भारत में ऐसी स्थिति कब आएगी? कुछ लोगों के लिए तो वहाँ यह स्थिति आ चुकी है, पर सब तक कब पहुँचेगी? शायद यह फिर कभी अनुगूँज का विषय बनेगा।
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