बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल है दुनिया मेरे आगे
होता है शबो-रोज़ तमाशा मेरे आगे।
इक खेल है औरंगे-सुलेमाँ मेरे नज़दीक
इक बात है ऐजाज़े-मसीहा मेरे आगे।
जुज़ नाम नहीं सूरते-आलम मुझे मंज़ूर
जुज़ वहम नहीं हस्तिए-अशिया मेरे आगे।
होता है निहाँ गर्द में सहरा मेरे होते
घिसता है जबीं ख़ाक पे दरिया मेरे आगे।
मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तेरे पीछे
तू देख कि क्या रंग है तेरा मेरे आगे।
सच कहते हो ख़ुदबीनो-ख़ुद-आरा न क्यों हों
बैठा है बुते-आईना-सीमा मेरे आगे।
फिर देखिये अन्दाज़े-गुल-अफ़्शानीए-गुफ़्तार
रख दे कोई पैमाना-ओ-सहबा मेरे आगे।
नफ़रत का गुमाँ गुज़रे है, मैं रश्क से गुज़रा
क्योंकर कहूँ लो नाम न उसका मेरे आगे।
ईमाँ मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ़्र
कआबा मेरे पीछे है कलीसा मेरे आगे।
आशिक़ हूँ, पे माशूक़-फ़रेबी है मेरा काम
मजनूं को बुरा कहती है लैला मेरा आगे।
ख़ुश होते हैं पर वस्ल में यूँ मर नहीं जाते
आई शबे-हिजराँ की तमन्ना मेरे आगे।
है मौज-ज़न इक क़ुलज़ुमे-ख़ूँ, काश यही हो
आता है अभी देखिये क्या-क्या मेरे आगे।
गो हाथ में जुंबिश नहीं आँखों में तो दम है
रहने दो अभी साग़रो-मीना मेरे आगे।
हम-पेशा ओ’ हम-मशरब ओ’ हम-राज़ है मेरा
‘ग़ालिब’ को बुरा क्यों कहो, अच्छा मेरे आगे।
– मिर्ज़ा असद्दुल्ला खाँ ‘ग़ालिब’
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शब्दार्थ :
बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल = बच्चों का खिलौना
शबो-रोज़ = रात दिन
औरंगे-सुलेमाँ = सुलेमान का सिंहासन
ऐजाज़े-मसीहा = मसीहा का चमत्कार
जुज़ नाम = नाम के सिवाय
हस्तिए-अशिया = चीज़ों का अस्तित्व
निहाँ = छुपना
सहरा = रेगिस्तान
जबीं = मस्तक
ख़ुदबीनो-ख़ुद-आरा = अहं से भरा हुआ
बुते-आईना-सीमा = दर्पण जैसी मूर्ति
अन्दाज़े-गुल-अफ़्शानीए-गुफ़्तार = पुष्पवर्षा सा बातचीत का ढ़ंग
पैमाना-ओ-सहबा = मदिरा का प्याला
कलीसा = गिरजाघर
वस्ल = मिलन
शबे-हिजराँ = विरह की रात
मौज-ज़न = लहराता हुआ
क़ुलज़ुमे-ख़ूँ = रक्त का समुद्र
जुंबिश = हरक़त
साग़रो-मीना = मदिरा की सुराही
हम-मशरब = मेरी जैसी आदतों वाला
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