कुछ ही समय पहले हिन्दी चिट्ठा जगत का यह हाल था गिने चुने चिट्ठे थे और हर चिट्ठा पढ़ा जाता था, और कई बार तो इन्तज़ार रहता था कि कोई कुछ लिखे तो हम पढ़ें। सौ का आंकड़ा पार करने के बाद चिट्ठों की संख्या और बढ़ती जा रही है और साथ ही बढ़ रही है गुणवत्ता और विविधता। इस के साथ ही यह तय करना मुश्किल हो रहा है कि कौन सा चिट्ठा पढ़ें और कौन सा नहीं। किस पर टिप्पणी करें और किस पर नहीं। पुराने पसन्दीदा चिट्ठे तो अपनी जगह हैं ही, साथ ही कई नए चिट्ठे जुड़ रहे हैं, जिन को “मिस” करना मुश्किल है। हाल ही में शुरू हुए चिट्ठों में पसन्द आया लाल्टू का आइए हाथ उठाएं हम भी। इस चिट्ठे की एक ख़ासियत तो यह है कि यह उन गिने चुने चिट्ठों में से है जो सही हिन्दी का इस्तेमाल करते हैं, यानी जिन में हिज्जों की ग़लतियाँ नहीं होतीं, “की” और “कि” में अन्तर किया जाता है, “ड़” और “ङ” में अन्तर किया जाता है, आदि।
जितना लाल्टू जी की प्रविष्टियाँ सोचने के लिए मजबूर करती हैं, उतना ही उन का चुना हुआ उपनाम लाल्टू, और चिट्ठे का नाम “आइए हाथ उठाएँ (?) हम भी”। हर विषय पर एक प्रविष्टि लिखी जा सकती है। चाहे उन की साझी लड़ाई हो, या गालियों से नाराज़गी।
इस बार साझी लड़ाई पर थोड़ा सा। लाल्टू जी कहते हैं
… एक चिट्ठा ऐसा था जिसमें कल दिल्ली में हुए विस्फोटों की प्रतिक्रिया में पाकिस्तान पर आक्षेप लगाए गए थे। आतंकवाद के प्रसंग में इज़राइल के गाज़ा छोड़ने के बाद भी हो रहे आत्म-घाती हमलों का ज़िक्र था। इस तरह प्रकारांतर में मुसलमानों पर ही आक्षेप था। यह सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण है कि लोग जल्दबाजी में इस तरह के निर्णयों पर पहुँच जाते हैं जो न केवल निराधार हैं, बल्कि कुल मिलाकर किसी का भला नहीं करते।
आतंकवाद किसी एक कौम की बपौती नहीं है। पाकिस्तान के लोग भी आतंकवाद से उतना ही पीड़ित हैं जितना हिंदुस्तान या कहीं और के लोग हैं।
मैं उन से काफी हद तक सहमत हूँ। भारत या पाकिस्तान का आम नागरिक, चाहे वह किसी भी धर्म का हो, आतंकवाद को नहीं चाहता, और उस से परेशान है। मैं यह भी मानता हूँ कि दुनिया की अक्सर आगें अमरीका, ब्रिटेन आदि पश्चिमी देशों की लगाई हुई हैं, पर पाकिस्तान को या पूरे विश्व में पनप रहे इस्लामी आतंकवाद को क्लीन चिट दे देना भी कोई अक्लमन्दी की बात नहीं है। क्या यह महज़ इत्तफ़ाक़ है कि स्पेन और लन्दन की ट्रेनों में, बेसलान के बच्चों के स्कूल में, न्यूयार्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर में, बाली के नाइट क्लब में, फ़्राँस की सड़कों पर, जहाँ कोई आतंकवाद की घटना होती है, जहाँ बेकसूर लोग मारे जाते हैं, वहाँ इस्लामी आतंकवाद सक्रिय होता है, और इन का पाकिस्तान के प्रशिक्षण शिविरों से भी कोई न कोई नाता ज़रूर होता है। इसलिए दिल्ली के धमाकों के सन्दर्भ में पाकिस्तान की बात लाल्टू जी को साम्प्रदायिक कैसे लगी यह समझ में नहीं आया। आम लोगों के तो सब साथ हैं, हम सब के निजी सम्बन्ध आम मुसलमानों से हैं, पर धार्मिक आतंकवाद भी सब से ज़्यादा इस्लाम में हो रहा है, इस बात को कैसे नकारा जा सकता है, जहाँ लोग बेकसूरों का कत्ल सिर उठा कर, और यह सोच कर करते हैं कि हम जन्नत में जाएँगे।
कश्मीर के पृथकतावाद के बारे में लाल्टू जी का कहना है
पता नहीं कितने समय तक काश्मीर के लोगों को यह यातना सहनी होगी। भारत में उनके हकों की लड़ाई लड़ने को देशद्रोह माना जाता है। उनके पक्ष में बोलने वाले लोग कोई नहीं। थोड़े बहुत जो हैं भी, उन्हें पापुलर मीडिया में जगह नहीं मिलती। एकबार किसी सभा में मैंने इसे भारतीय लोकतंत्र की कमज़ोरी कहा तो एक वक्ता ने प्रतिवाद करते हुए कहा कि अखबारों में हर रोज़ पृथकतावादियों के बयान छपते हैं, जबकि मेरा आशय पृथकतावादियों से नहीं, बल्कि हमारे जैसे साधारण नागरिकों से था, जो काश्मीर के प्रति भारत या पाकिस्तान की नीतियों से सहमत नहीं। हाल में एक राष्ट्रीय अखबार में मेरे लिखे एक लेख में काश्मीर प्रसंग में लिखे शब्द ‘आज़ादी’ को ‘कथित आज़ादी’ कर दिया गया, बिना मुझसे पूछे ही।
स्वयं एक कश्मीरी होने के नाते मुझे लाल्टू जी की विचारधारा पर सोचना पड़ा। कश्मीरियों के किन हकों की लड़ाई की बात कर रहे हैं वे? ठीक है आप का “आशय पृथकतावादियों से नहीं, बल्कि हमारे जैसे साधारण नागरिकों से था”। यदि आज़ादी की मांग पृथकतावाद नहीं तो फिर क्या है? और यदि यह मांग अलग रखी जाए, तो कश्मीरियों को कौन सी ऐसी तकलीफ है जो शेष भारतवासियों को नहीं। क्या बिहार में बेरोज़गारी नहीं? क्या वहाँ पुलिस की ज़्यादतियाँ नहीं? क्या उत्तर प्रदेश में बिजली की कमी नहीं? क्या हिमाचल और उत्तरांचल की मुश्किलें अलग हैं? वे तो आज़ादी का नारा नहीं लगाते। फिर ऐसा क्या है जो कश्मीर में अलग है? इस्लाम? यदि हाँ, तो फिर किस सेक्युलरिज़्म की बात कर रहे हैं आप? हम लोगों (कश्मीरी हिन्दुओं) को आज़ादी का नारा लगाने की ज़रूरत क्यों नहीं पड़ी, लद्दाखियों और जम्मू-वासियों को जो उसी राज्य के बाशिन्दे हैं, आज़ादी की ज़रूरत क्यों नहीं पड़ी, जब कि १९४७ से ही जम्मू-कश्मीर राज्य में कश्मीरी मुसलमानों की ही हुकूमत रही है, और अन्य क्षेत्रों (जम्मू, लद्दाख) और अल्पसंख्यकों (हिन्दू, बौध, सिख) की अवहेलना हुई है। यहाँ तक कि हम लोगों को घरबार छोड़ कर १५ साल पहले बिखर जाना पड़ा। क्या लाल्टू जी के मीडिया वाले जिन्हें “पॉपूलर मीडिया में जगह नहीं मिलती”, हमारी बात भी करते हैं?
हम तो अपनी जन्मभूमि कश्मीर खो ही चुके हैं, अब चाहे उसे आज़ादी दे दें या पाकिस्तान को दे दें हमारी बला से। पर क्या इस्लाम के कारण कश्मीर को अलग करना भारत के सेक्यूलरिज़्म को नकारना नहीं होगा? देश के बाकी हिस्सों में इस का क्या असर होगा? और क्या इस से जिहादी चुप हो जाएँगे? उन का ध्येय तो तब पूरा होगा, जब पूरे भारत में ही नहीं, पूरे विश्व में “रौशनी” नहीं फैलती, भले ही वह तलवारों से और बमों से ही क्यों न फैले।
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