स्वामी जी बढ़िया रहे। इस विषय पर उन की प्रविष्टि पहले आई, और अनुगूँज बाद में घोषित हुई। यह तो वही हुआ कि जो आप ने पहले ही पढ़ा है उसी पर आप को डिग्री दी जाएगी। फिर खानापूर्ति के लिए एक और प्रविष्टि लिख दी, जिस पर अनूप भाई ने कंजूसी का आरोप सही लगाया है। स्वामी जी, आप से थोड़े लम्बे व्याख्यान की अपेक्षा थी।
जब भी किसी अनुगूँज की घोषणा होती है, मैं सोचने लग जाता हूँ और चाहता हूँ कि प्रविष्टि लिखूँ। पर जब तक ख्यालों को तरतीब दे पाता हूँ, अन्तिम तिथि आ भी जाती है और निकल भी जाती है। विषय दिल के करीब हो तो दुख होता है, जैसा कि पंकज का विषय था, “हम फिल्में क्यों देखते हैं”। खैर इस बार अपना पढ़ाई का सेमेस्टर १४ दिसम्बर को समाप्त हुआ, १५ को दफ्तर के काम से पिट्सबर्ग गया था, और आज आखिरी तारीख निकलने से पहले उम्मीद है कि जैसे तैसे प्रविष्टि लिख ही दूँगा।
चलिए मुद्दे पर आया जाए। तो, प्रश्न था
… आज के अभिभावकों और युवाओं से, की वो कौन से आदर्श, संस्कार और शिक्षाएं हैं जो आज के परिपेक्ष्य में अव्यव्हारिक और पुरातन लगते हैं – जिनकी वजह से आपको परिपक्वता पा लेने के बाद में सामाजिक जीवन में कठिनाईयां आईं – जिन्हें आपको छोडना या बदलना पडा. वो कौन सी शिक्षाएं हैं जिन्होंने आपको सफ़ल होंने में सहायता की? अपने अनुभवों के आधार पर आप आने वाली पीढी को कौन सी शिक्षा कुछ अलग दोगे या अलग प्रकार से सिखाओगे, और क्यों?
दरअसल इस पर जितना सोचता हूँ उतना कन्फ्यूजिया जाता हूँ। आदर्श, संस्कार और शिक्षाएँ तो बचपन में बहुत मिले, उन में से बहुत सारे आत्मसात् किए और बहुत से अस्वीकार किए। यह प्रक्रिया परिपक्वता पा लेने के बाद अचानक नहीं हुई, पर एक निरन्तर परिवर्तन के रूप में बचपन से ही होती रही – बिना किसी सचेत प्रयास के। बचपन की शिक्षाओं, घटनाओं के आधार पर जो व्यक्तित्व बन निकला वह किसी भी सूरत में परिपूर्ण नहीं था, और उस से कठिनाइयाँ भी आईं, पर आदमी अपने मूल व्यक्तित्व को कितना बदल सकता है?
घर में धार्मिक माहौल था, सैकड़ों तरह के रस्मो रिवाज, दर्जनों अवधारणाएँ और पूर्वाग्रह। पर बचपन से ही जो अच्छा नहीं लगा, उस को मैं अस्वीकृत करता आया। कुछ बन्धन अपने लिए तोड़े कुछ से घरवालों को भी मुक्त किया। घर में मुसलमान मज़दूर आदि आते थे तो उन के लिए अलग प्याला कील पर लटका होता था। वे चाय पीते तो कील से अपना प्याला उठा कर। उन के बर्तन में चाय ड़ालते समय मजाल है कि केतली या पतीला उन के बर्तन से छू जाए। मैं मज़ाक उड़ाता था, “क्या चाय की धार में से अपवित्रता का संचार नहीं होता?” मेरे अपने मुस्लिम दोस्त बने, घर में आए, तो यह रस्म खत्म हो गई। हम जान बूझ कर एक दूसरे का जूठा खाते थे, और वह भी औरों को दिखा दिखा कर – दोनों तरफ़ के लोगों को। जब मेरे यज्ञोपवीत (जनेऊ) की रस्म हुई तो मेरा दोस्त महबूब प्रसाद-वितरण कर रहा था।
औरों को बदलने का फिर भी न ठेका लिया, न ज़्यादा सफलता मिली। खुद में जो रह गया, जो व्यक्तित्व में विकृतियाँ रह गईं उन के लिए स्वयं को दोषी मानता हूँ। अभिभावकों की सीख को दोषी नहीं ठहराता। मेरे विचार में हर आदमी ज़िन्दगी में अपना रास्ता खुद चुनता है, और अपने निर्णयों और उन के निष्कर्षों के लिए खुद ज़िम्मेवार होता है।
ज़िन्दगी को चलाने के लिए जितने नियम चाहिएँ, उन के लिए मेरे विचार में न तो धर्मग्रन्थों की आवश्यकता है, न संस्कारों की। किसी को तकलीफ मत पहुँचाओ, बेईमानी मत करो, स्वच्छ रहो, इन सब निष्कर्षों तक पहुँचने के लिए कितना दिमाग़ चाहिए? इस के लिए न तो भगवद्गीता चाहिए, न बाइबल, न कुरानेशरीफ, न माँ बाप की शिक्षा; अपनी अन्तरात्मा, देशकाल की व्यवस्था और कानून ही काफी है। हाँ, भोजन आरंभ करने से पहले मन्त्र कौन सा पढ़ना है, यज्ञ में कीमती चीज़ों की आहुति देते समय क्या बुदबुदाना है, इस के लिए धर्मग्रन्थ चाहिएँ। खाने से पहले जानवर को हलाल कैसे करना है, इस के लिए धर्मग्रन्थ चाहिएँ। बिना सोचे समझे इस सब पचड़ों में पड़ेंगे तो वही होगा जो आज दुनिया भर में हो रहा है।
यही सोच समझ कर मैं यह भी कोशिश करता हूँ कि अपने बच्चों को भी किसी पूर्वनिर्धारित विचारधारा में नहीं बान्धूँ। हाँ, मैं क्या सोचता हूँ, यह उन को बताता हूँ।
आजकल लाल्टू जी के लेख, और उन पर मनोज जी की टिप्पणियाँ पढ़ता हूँ तो उन में देशभक्ति और राष्ट्रवाद के प्रति तिरस्कार की झलक देखता हूँ। बचपन से कई लोग इस विचारधारा के भी मिले। पर स्वयं में यह “गुण” नहीं ला पाया। चाहे अमरीका में रह कर भारत से भक्ति हो, चाहे कश्मीर का नाम सुनते ही कान खड़े हो जाने की प्रवृति हो, चाहे नास्तिक होने पर भी हिन्दुत्व पर गर्व की बात हो, चाहे यह सब ढ़ोंग लगता हो, पर इस सब से स्वयं को अलग नहीं कर पाया। बचपन में किसी के कहे जाने पर कि “देशभक्ति एक फालतू विचारधारा है”, जो आश्चर्य और दुख होता था, वही आज भी होता है। कोई “ईमेल-राष्ट्रवाद” नाम की बीमारी का भी ज़िक्र किया जाता है, जैसे कि “ईमेल-वामपन्थ” नहीं होता।
मैं यह मानता हूँ कि हर व्यक्ति की धार्मिक विचारधारा और उसका धर्म उसका व्यक्तिगत मामला होना चाहिए, और जहाँ देश की बात आए, कानून की बात आए, धर्म को पूरी तरह से अलग रखा जाना चाहिए। आम ज़िन्दगी में भी ऐसे चिह्नों को टाला जाना चाहिए जो व्यक्ति के धर्म का ऐलान करते हों, चाहे वह लम्बा सा तिलक हो, मौलवी जैसी दाढ़ी हो, या सरदार जी की पगड़ी। पर फिर, आप कितने चिह्नों को टालेंगे। अक्सर तो नाम से ही धर्म का पता लग जाता है — तो क्या हम सब नाम बदल लें? मैं ने कहा न, मैं कन्फ्यूज़्ड हूँ।
मैं यह भी मानता हूँ कि कई बार परंपरापूर्ण व्यवस्था में परंपराओं को तोड़ने में जितनी हिम्मत लगती है, उतनी ही हिम्मत लगती है एक “आधुनिक” व्यवस्था में परंपरा को बरकरार रखने में। इसलिए मैं उन लोगों की हिम्मत को भी दाद देता हूँ जो मुश्किल होने के बावजूद इन सब चिह्नों को पालते हैं। यहाँ अपनी कक्षा के लिए विश्वविद्यालय जाता हूँ, तो अक्सर एक विद्यार्थी दिखता है, जो रोज़ लम्बा, लाल तिलक लगाए कक्षा में जाता है। अमरीका में यह करने के लिए हिम्मत चाहिए। मेरा सिख दोस्त है, जो मुझे मालूम है कि बाल काटे तो बहुत ज़्यादा तरक्की कर सकता है, पर वह न सिर्फ रोज़ पगड़ी पहने काम पर जाता है, लोगों की टेढ़ी नज़रों का जवाब देता है सिख धर्म के बारे में छपे एक सूचना पत्र से, ताकि लोग जो सिखों को जेहादियों जैसा समझते हैं, उन का भ्रम दूर हो।
और मैं हूँ कि जब भी अपनी पत्नी के साथ बाज़ार जाता हूँ तो कोशिश करता हूँ कि वह सलवार कमीज़ न पहने, पश्चिमी कपड़े पहने, या साड़ी। कहता हूँ, “क्यों बेकार लोगों की दुर्भावना का शिकार बनो, वैसे भी ९-११ के बाद लोगों की नज़रें बदल गई हैं।”
यदि यह सब पढ़ कर आप को लग रहा है कि यह बन्दा उलझा हुआ है, और परस्पर विरोधी बातें कह रहा है, तो आप अकेले नहीं हैं। मैं भी आप के साथ हूँ। मुझे कुछ नहीं चाहिए, चाहिए तो बस अनुगूँज के इलेक्शन में आप का कीमती वोट ;-)।
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