हाल ही के कुछ समाचार माध्यमों में खबर थी, १९९० के पूर्वार्ध में जम्मू कश्मीर छात्र स्वातंत्र्य फ्रंट के कर्ताधर्ता और आत्मसमर्पण करने वाले आतंकियों की संस्था इख़्वान-उल-मुस्लिमीन के सर्वोच्च कमांडर ताहिर शेख इख़्वानी ने टेरिटोरियल सेना के अफसरों की चयन परीक्षा उत्तीर्ण कर ली है। बहस उठी कि क्या यह मुनासिब है कि पूर्व आतंकवादियों को सामरिक रूप से महत्वपूर्ण पद सोंपे जाएँ? यही बना तीसरी अनुगूँज का विषय: “आतंक से मुख्यधारा की राह क्या हो?”
मेरे विचार में आतंक से मुख्यधारा की राह जो भी हो, उस की मंज़िल भारतीय सेना नहीं होनी चाहिए। पहले तो आतंक से मुख्य धारा की राह हो ही क्यों? यदि सामान्य जीवन में कोई क़त्ल करता है, तो चाहे पकड़ा जाए या आत्मसमर्पण करे, उस की राह जेल में जाके ही रुकती है। अगला पड़ाव मृत्यु दण्ड या आजीवन कारावास, नहीं तो लम्बा कारावास। मुख्य धारा की बात हो भी तो सज़ा काटने के बाद। जिन आतंकियों ने असंख्य हत्याएँ की हों उनके साथ मुख्य धारा की बात क्यों हो? क़त्ल भी ऐसे वैसे नहीं किए होते इन लोगों ने — फौजियों को मारा होता है। अब इन्हीं लोगों को फौज में शामिल करेंगे आप? परीक्षा तो कोई भी उत्तीर्ण कर ले, जाने क्या स्थितियाँ रही होंगी जब ताहिर मियाँ ने टेरिटोरियल सेना के अफसरों की चयन परीक्षा उत्तीर्ण की होगी। हो सकता है उसमें उन्हीं राजनीतिक शक्तियों का हाथ हो जो उन्हें सेना का अफ़सर बनाने पर तुले हुए हैं। यों तो मुन्ना भाई ने भी डाक्टरी की एक से बढ़ के एक परीक्षा टाप करी थी, यह तो उनसे आपरेशन करवाने वाली बात हो गई।
चलिए माना इखवान वाले सरकारी आतंकवादी हैं। इन लोगों ने काफी सहायता की है भारतीय एजेंसीज़ की। बेचारे ताहिर मियाँ पर तो जानलेवा हमले भी हुए पाकिस्तान-परस्त आतंकियों द्वारा। इख़वानुल-मुस्लिमीन का संस्थापक और पूर्व अध्यक्ष कुका परे तो राजनीति में भी कूद पड़ा था। १९९६ में विधायक का चुनाव भी जीता। पर पिछले वर्ष मार दिया गया। कई साथी भी मारे गए। पर विश्व भर में ऐसे गुटों का इतिहास देखिए। अक्सर देखा गया है कि यह लोग आस्तीन के साँप होते हैं, कभी न कभी पालने वाले को ही काट खाते हैं। जरनैल सिंह भिंडरावाले से ले कर तालिबान तक कई लोग और गुट किसी न किसी रूप में पहले “सरकारी” आतंकी रहे हैं।
अब प्रश्न यह है कि यदि इन लोगों ने सरकार की सहायता की है और उसे अगर पुरस्कृत करना ही है तो कैसे किया जाए? पैट्रोल पम्प दे दीजिए। गैस एजेन्सी दे दीजिए। राजनीति भी चल जाएगी, वैसे ही देश-द्रोहियों से भरी पड़ी है। पर फौजी अफ़्सर? नहींऽऽऽऽ !!!
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