यह चर्चा आरंभ करने के लिए आलोक का धन्यवाद।
सब से पहली बात यह समझने की है कि इंटरनेट हमारे समाज का ही आईना है। हमारे समाज का एक अधूरा आईना, जिस में हम केवल समाज के पढ़े-लिखे, “आधुनिक”, मध्यम-आय (और ऊपर) और मध्यम-आयु (और नीचे) वर्ग का प्रतिबिम्ब देख सकते हैं। समाज के इस वर्ग में हिन्दी का क्या स्थान है? जब इस वर्ग का आम व्यक्ति रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में हिन्दी की बजाय अंग्रेज़ी को प्राथमिकता देता है, तो हम यह कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि इंटरनेट-नुमा आईने में हमें कुछ और दिखेगा। जब यह वर्ग समाचार के लिए अंग्रेज़ी समाचार पत्रों पर निर्भर रहता है, तो यह कैसे होगा कि गंभीर इंटरनेट खोज के लिए हिन्दी जालपृष्ठों पर निर्भर रहे? हाँ, ज़रूरत यह है कि इस वर्ग का विकास कर के कंप्यूटर और इंटरनेट को उन लोगों तक पहुँचाया जाए जो अंग्रेज़ी की जगह हिन्दी को प्राथमिकता देते हैं।
मेरा मानना है कि इंटरनेट पर हिन्दी का स्थान न सिर्फ समाज में हिन्दी के स्थान का प्रतिबिम्ब है, बल्कि कुछ मामलों में तो इंटरनेट समाज में हिन्दी के प्रयोग में बढ़ोतरी कर रहा है। और आगे भी और बढ़ोतरी होगी, या यूँ कहें कि हाल में हिन्दी में हो रही अवनति पर कुछ लगाम लग रही है। हम में से कितने लोग अपने व्यक्तिगत, ड़ाक से जाने वाले पत्र हिन्दी में लिखते थे? हम में से कितने लोग नियमित रूप से हिन्दी समाचार पत्र पढ़ते थे?
एक बार आलोक द्वारा उठाए गए प्रश्नों पर नज़र ड़ाली जाए
(1) क्या यह स्थिति वाञ्छनीय है? यदि हाँ, तो क्यों? यदि नहीं तो क्यों नहीं?
स्थिति वांछनीय तो नहीं है, पर दयनीय भी नहीं है। आशा की किरण मौजूद है और उजली भी है। पिछले पाँच वर्षों में इंटरनेट पर हुई प्रगति को देखिए। उस से पहले इंटरनेट पर हिन्दी नहीं के बराबर थी। जितनी दर्जन भर साइटें थीं सब की अपनी अपनी मुद्रलिपियाँ थीं। मुद्रलिपि को बनाने और लोगों के कंप्यूटरों तक पहुँचाने में जाल-निर्माताओं को बहुत मेहनत करनी पड़ती थी। आम पाठक फॉण्ट डाउनलोड करने में आलस करता था, तो डाइनमिक फॉण्ट तकनीकों पर मेहनत की जा रही थी। यूनिकोड ने वह सब बदल दिया, और तब से इंटरनेट पर हिन्दी दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की कर रही है। डीमोज़ निर्देशिका के अनुसार छः-सात सौ हिन्दी जालघर हैं, पर इस संख्या को पत्थर की लकीर नहीं माना जा सकता। कितनी ही साइटें होंगी जो इस तरह की निर्देशिकाओं तक नहीं पहुँच पाई होंगी।
(2) इतना तो निश्चित है कि जाल पर हिन्दी बढ़ेगी। पर क्या बढ़ने की रफ़्तार वही रहेगी जो अभी है? या रफ़्तार कम होगी? या रफ़्तार बढ़ेगी?
मेरे विचार में जाल पर हिन्दी के विस्तार की गति बढ़ेगी। फिर भी अँग्रेज़ी के करीब पहुँचना या उस का स्थान लेना न तो हिन्दी के बस की बात है, न किसी और भाषा के। अंग्रेज़ी (या रोमन लिपि) कंप्यूटर की भाषा बन चुकी है, और इस तथ्य को बदल पाना काफी मुश्किल है। कहने वाले कहते हैं कि संस्कृत कंप्यूटर के लिए सब से उपयुक्त भाषा है। शायद यह सही भी हो, पर संस्कृत की भूमि भारत में कितने लोग संस्कृत बोलते हैं? शायद उंगलियाँ ही काफी होंगी ऐसे लोगों को गिनने के लिए।
(3) क्या हिन्दी जाल जगत को सर्वाङ्गीण विकास की आवश्यकता है? क्या विकास की दिशा का नियन्त्रण किया जाना चाहिए या इसे अपने आप फलने फूलने या ढलने देना चाहिए? साथ ही, वैयक्तिक रूप से क्या हम इस विकास पर कोई असर डाल सकते हैं?
हिन्दी जाल जगत को सर्वांगीण विकास की आवश्यकता है। यह ज़रूरी है कि हिन्दी के और चिट्ठे बनें। चिट्ठों में अधिक लिखा जाए। अधिक जालस्थल बनें — केवल मुँहदिखाई के लिए नहीं बल्कि कार्यशील जालस्थल — वेब दुकानें, कंपनियों की वेबसाइटें, रेल आरक्षण, हवाई आरक्षण की साइटें, आदि। हिन्दी में चलने वाले अधिक प्रोग्राम बनें। अधिक ईमेलें हिन्दी में लिखी जाएँ। यूज़नेट पर हिन्दी यूज़ हो।
विकास की दिशा का नियन्त्रण किया तो जाए पर कैसे? और कौन करे? मेरे विचार में इसे अपने आप फलने फूलने और ढलने देना चाहिए। किसी एक व्यक्ति या संस्था के विचार में जो सही दिशा होगी, वह हो सकता है, दूसरे व्यक्ति या संस्था के विचार में नहीं हो। विकास के लिए सभी काम करें, वैयक्तिक स्तर पर काम करें, संस्थाओं के स्तर पर काम करें, ताकि चहुँमुखी विकास हो।
चिट्ठाकारी अभी तक का सर्वोत्तम माध्यम
पिछले साल भर से ब्लॉग लिखने पढ़ने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि ब्लॉग अभी तक अन्तर्जाल पर हिन्दी अभिव्यक्ति का सर्वोत्तम माध्यम है। चिट्ठाकारी से इंटरनेट पर हिन्दी जानने वालों की मलाई सतह पर आ गई है। जो चिट्ठा लिखता है, पढ़ता है, वह गंभीरता से हिन्दी में रुचि रखता है। इन में से कई लोग ऐसे हैं जिन का लेखन चिट्ठाकारी से ही पनपा है, पहले सही मंच के अभाव मे लिखते नहीं थे, लिखते भी थे तो छापते नहीं थे। ब्लॉग ने लोगों को लिखने के लिए उकसाया है, और लिखे हुए पर लेखक का अपना स्वामित्व होने के कारण उस में और निखार आया है। मेरे विचार में चिट्ठाकारी अपने चरम पर कतई नहीं पहुँची है। यह सौ चिट्ठे तो शुरुआत है। हर रोज़ नए चिट्ठाकार जुड़ रहे हैं, और जैसे जैसे और लोग जानेंगे, और लोग जुड़ेंगे।
अभिव्यक्ति के अन्य माध्यम – व्यक्तिगत जालस्थल, ड़ाक-समूह (मेलिंग लिस्टें) और यूज़नेट
चिट्ठाकारी से पहले से यही सब माध्यम थे इंटरनेट पर हिन्दी अभिव्यक्ति के — पर सब में चिट्ठाकारी के मुकाबले कुछ न कुछ खामियाँ हैं। सामान्य व्यक्तिगत जालस्थलों में यह कमी रही है कि संवाद एकतरफा रहता है, और कुछ समय के बाद दुकान या तो बन्द हो जाती है या ढ़ीली पड़ जाती है। यूज़नेट सब का है और इसलिए किसी का नहीं। यूज़नेट के कुछ ही मंच ऐसे हैं जहाँ गंभीरतापूर्वक विचार विमर्श होता है, और समस्याएँ सुलझाई जाती हैं। अधिकतर तो वहाँ गाली गलौज़ ही होती है। यदि आप को पाकिस्तान को गाली देनी है तो soc.culture.pakistan पर जाइए, और यदि भारत को गाली देनी है तो soc.culture.india पर। दुनिया भर के मवाली इन मंचों पर आते हैं, क्योंकि कोई रोकने वाला नहीं है। alt.languages.hindi पर कोई सीडी बेच रहा है तो कोई कैनडा में पढ़ाई के विज्ञापन दे रहा है। कोई गाली गलौज़ लिखता है तो उसे हटाने वाला कोई नहीं है।
संक्षेप में, गंभीर इंटरनेट प्रयोक्ता के लिए शायद यूज़नेट सर्वोत्तम स्थान नहीं है। कुछ दिन पहले आलोक जी ने दहेज के विषय पर बहस छेड़नी चाही यूज़नेट पर – बहुत ही रोचक और विचारोत्तेजक मुद्दे उठाए थे। न्यौता दिया अपने चिट्ठे पर, ताकि चिट्ठा पाठक भी आएँ, यूज़नेट वाले तो थे ही। हुआ यह कि इतना रोचक विषय होने पर भी यूज़नेट पर मेरे सिवा कोई नहीं गया (यह प्रविष्टि लिखे जाने तक), और चिट्ठे पर प्रतिक्रियाएँ इसलिए नहीं हो पाईं कि वहाँ टिप्पणियाँ बन्द थीं। आलोक भाई, प्रविष्टि पर टिप्पणियों की अनुमति दीजिए, फिर देखिए कैसे होती है ज़ोरदार चर्चा।
यूज़नेट से कुछ बेहतर हैं विभिन्न व्यक्तियों के द्वारा चलाए जा रहे चर्चा समूह, जहाँ कुछ नियन्त्रण रहता है, और मवाली एकदम बाहर कर दिए जाते हैं।
अब प्रश्न यह है कि इंटरनेट पर हिन्दी को और बढ़ावा देने के लिए क्या किया जा सकता है?
पिछले दो-एक वर्षों में जाल पर हिन्दी के प्रयोग में बढ़ोतरी हुई है यूनिकोड़ के चलते। और जैसे जैसे यूनिकोड का प्रयोग बढ़ेगा, जाल पर हिन्दी का प्रयोग बढ़ेगा। इस का समाधान करने के लिए कम से कम यह कदम उठाए जाने ज़रूरी हैं –
साइबर कैफेओं का हिन्दीकरण
भारत में अधिकांश लोग इंटरनेट के लिए साइबर कैफेओं पर निर्भर हैं, और मैं ने सुना है कि अधिकांश साइबर कैफेओं पर हिन्दी पढ़ने लिखने की सुविधा नहीं है। इन के कंप्यूटर विन्डोज़-९८ पर चलते हैं, और ये कुछ भी डाउनलोड करने की इजाज़त नहीं देते। वैसे ही आम कंप्यूटर प्रयोक्ता फॉण्ट डाउनलोड में रुचि नहीं लेता। हमें एक अभियान चलाना चाहिए ताकि सभी साइबर कैफेओं का हिन्दीकरण हो। हम एक स्टिकर जैसा बनाएँ – “मेरा कंप्यूटर हिन्दी जानता है” जैसा। हर शहर में संपर्क और तकनीकी सहायता के लिए हमारे स्वयंसेवक हों, जो साइबर कैफेओं के हिन्दीकरण (फॉण्ट डाउनलोड,आदि) में सहायता करें। साथ ही जो बड़ी बड़ी साइबरकैफे चलाने वाली कंपनिया हैं, उन्हें हम मिल कर लिखें।
वर्तमान हिन्दी साइटों का यूनिकोडीकरण
यह समझना थोड़ा कठिन है कि अभिव्यक्ति हिन्दी, हिन्दुस्तान, अमर उजाला, दैनिक जागरण, नव भारत, नई दुनिया, जैसे प्रमुख जालस्थल यूनिकोड का प्रयोग क्यों नहीं करते। इन की मुद्रलिपियाँ पढ़ने में भद्दी लगती हैं, ये खोज इंजनों द्वारा खोजे नहीं जाते, और इन्हें पढ़ने के लिए अपने कंप्यूटर पर नए फॉण्ट डालने पड़ते हैं जो निहायत ही ग़ैर ज़रूरी है (या उन की डाइनमिक फॉण्ट स्क्रिपटें चलानी पड़ती हैं)। क्या इन लोगों को यूनिकोड के फायदों का पता नहीं है, या कोई और कारण है कि ये लोग अपनी अपनी गई गुज़री मुद्रलिपियों से लिपटे हुए हैं? इन को मिल कर लिखा जाना चाहिए और समझाया जाना चाहिए के ये अपनी साइटों को यूनिकोड में परिवर्तित करें।
उम्मीद है कि इस सारी चर्चा से कुछ महत्वपूर्ण मुद्दे उभरेंगे, और अन्त में कुछ कदम उठाए जाएँगे जिन से हमारी प्यारी भाषा का इंटरनेट पर विकास हो।
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