[१९९० के आरंभ तक उत्तर कश्मीर के कलूसा गाँव के जिस घर में मेरा परिवार दशकों से रहा, उस में तब से या तो हिज़्बुल-मुजाहिदीन का डेरा रहा है या राष्ट्रीय राइफ्ल्ज़ का, जिस का जिस समय वर्चस्व रहा। वह क्षेत्र “शान्त” क्षेत्रों में से है, क्योंकि वहाँ अभी भी गिनती के दो-चार हिन्दू बचे हुए हैं। ३० किलोमीटर दूर सोपोर में जहाँ मेरे कई रिश्तेदार रहते थे, अब हिन्दू मोहल्ला खंडहर बन चुका है, जहाँ कोई नहीं रहता और घर जल कर शब्दशः मिट्टी में मिले हुए हैं। अगली पीढ़ियों के लिए कश्मीर का कुछ अर्थ हो या न हो, हमारी पीढ़ी तो इसे अपने दिलो-दिमाग़ से नहीं निकाल सकती। इसी पीढ़ी के हैं रेडिफ स्तंभकार ललित कौल। उन के पिछले सप्ताह के लेख का मैं ने हिन्दी अनुवाद किया है जो नीचे प्रस्तुत है।]
कश्मीरी हिन्दू समुदाय ने १९-२० जनवरी को कश्मीरी हिन्दू हालोकास्ट दिवस के रूप में मनाया। १५ वर्ष पहले इसी दिन इस्लामी आतंकियों ने कश्मीर घाटी से कश्मीरी हिन्दुओं के सामूहिक निष्कासन का अभियन्त्रण किया।
१९ जनवरी १९९० की रात कश्मीरी हिन्दुओं के इतिहास में सबसे काली रात थी। उस रात, घाटी की सभी मस्जिदों के लाउडस्पीकर चीख चीख कर इस अल्पसंख्यक समुदाय के विरुद्ध ज़हरीली धमकियाँ उगल रहे थे। रात भर, इस शान्तिप्रिय समुदाय को धमकी दी जा रही थी कि या तो धर्म परिवर्तन कर लें या घाटी को छोड़ दें। या फिर, मरने के लिए तैयार हो जाएँ।
१९४७ में, जब पाकिस्तानी कबाइली आक्रामक, पाकिस्तानी सेना की मदद से श्रीनगर की ओर बढ़ रहे थे तब कश्मीरी हिन्दुओं को ऐसी ही स्थिति का सामना था। उन दिनों हर परिवार की स्त्रियों को विष की पुड़ियाँ बाँटी गई थीं ताकि आक्रामकों के घर में घुसने की स्थिति में वे उसे खा लें। नार्कीय बल के विरुद्ध यह ज़हर की पुड़िया ही उन का इकलौता बचाव थी। अस्मिता हरण से पहले मौत।
जनवरी की उस रात भी कुछ ऐसी ही स्थिति थी। स्त्रियों को घरों के अन्धेरे कोनों में छिपाया जा रहा था, ताकि भाड़े के आतंकी उन्हें ढ़ूँढ़ न पाएँ। जैसे जैसे रात गहरा रही थी, भय के बादल घने होते जा रहे थे। अन्ततः सुबह होने पर कश्मीरी हिन्दू और न सह पाए और जान बचाने के लिए सब कुछ छोड़ छाड़ कर भागे — वे मन्दिर जो उन्हें सुकून और शान्ति देते थे, वे विद्यालय जहाँ से उन्होंने ज्ञान और बुद्धिमत्ता पाई थी, वे घर और चौखटें जिनसे उनकी जीवन भर की यादें जुड़ी हुई थीं, वे पुल जिन पर उन्होंने वितस्ता (जेहलम) नदी को सराहते हुए अपनी शामें गुज़ारी थीं, चिनार के वे शानदार वृक्ष जिनकी छाया भर से उनके घाव भर जाते थे, कश्मीरी में ‘डब’ कहलाई जाने वाली वह बाल्कनियाँ जिन पर वे अपने घरों की टीन की छतों पर गिरती बारिश की छन छन सुनते थे। हर चीज़ जिनसे उन्हें प्यार और लगाव था।
पन्द्रह वर्ष हुए हैं तब से, और उनके लिए बहुत कुछ नहीं बदला है। तब कोई उनकी मदद के लिए नहीं आया। आज भी किसी को उनकी परवा नहीं है। तब कश्मीरी हिन्दू कश्मीर की शतरंज में मोहरे थे। आज भी वे मोहरे ही हैं।
आजकल जम्मू कश्मीर राज्य में २७ वर्ष बाद स्थानीय चुनाव हो रहे हैं। ज़रा अन्दाज़ा लगाएँगे? घाटी के ४००,००० कश्मीरी हिन्दुओं में से एक का नाम भी मतदाता सूची में नहीं है। एक ही झटके में सभी ४००,००० कश्मीरी हिन्दुओं का मतदान करने का मूल अधिकार उनसे छीन लिया गया है। क्यों? क्योंकि वे अब घाटी में नहीं रहते। और क्यों नहीं रहते घाटी में वे? फिर समझाना पड़ेगा क्या?
इधर इन कश्मीरी हिन्दुओं के मूलभूत अधिकारों का हनन हो रहा है, उधर सभी राजनीतिक दल अपने अपने स्वार्थ के लिए स्थिति का भरपूर लाभ उठा रहे हैं। जम्मू-कश्मीर के मुख्य मन्त्री मुफ्ती मुहम्मद सईद और उनके पीडेपा वाले चमचे कह रहे हैं कि चूँकि ये कश्मीरी हिन्दू घाटी में नहीं रहते, उन्हें मतदाता सूची में नहीं रखा जा सकता। उन की बहस का मुद्दा यह है कि इन खाना-बदोश लोगों को वहाँ की मतदाता सूची में होना चाहिए जहाँ वे रहते हैं, जैसे जम्मू, उधमपुर, आदि।
मुफ्ती साहब के उप मुख्य मन्त्री मंगत राम शर्मा जो उन की साझेदार पार्टी काँग्रेस-इ से हैं (और जम्मू से हैं), राज्य के राज्यपाल से अधिसूचना की माँग कर रहे हैं कि इन कश्मीरी हिन्दुओं को घाटी की मतदाता सूचियों में वापस ड़ाल दिया जाए। (जम्मू के) भाजपा वाले भी इन शरणार्थियों को घाटी की मतदाता सूचियों में ही रखना चाहते हैं। यानी कुछ लोग उन्हें कश्मीर से निकालने के चक्कर में हैं और कुछ लोग जम्मू से। कुछ लोग अपने यहाँ की मतदाता सूचियों से उन्हें बाहर देखना चाहते हैं तो कुछ लोग दूसरी जगह की मतदाता सूचियों में ड़ालना चाहते हैं।
राजनीतिक दलों की इस उठापटक के चलते प्रभावित लोगों की कोई नहीं सुन रहा। कश्मीरी हिन्दू क्या चाहते हैं इस की किसी को परवाह नहीं।
भारत जैसे जनतान्त्रिक देश में कोई मतदान का संवैधानिक अधिकार कितनी आसानी से खो सकता है, यह देख कर घिन्न होती है। एम्नेस्टी इंटरनेश्नल और ह्यूमन राइट्स वाच अब कहाँ हैं? शायद मैनहटन न्यूयार्क के किसी पैंटहाउस में स्काच की चुस्कियाँ लेने में व्यस्त होंगे।
अपने यहाँ के राजनीतिज्ञ किस तरह गिरगिट की तरह रंग बदलते हैं, यह देख कर ग्लानि होती है। जब सत्ता में होते हैं तब अपनी ही ऐंठ में होते हैं और जिन लोगों को हानि पहुंची है उन की वाजिब माँगों को भी नकार देते हैं। और जब हार कर विपक्ष में बैठते हैं, फिर मसीहा बने फिरते हैं।
अभी कुछ ही दिन पहले भूतपूर्व उप प्रधान मन्त्री लाल कृष्ण आड़वानी कश्मीरी हिन्दू हालोकास्ट दिवस के उपलक्ष्य में कश्मीरी हिन्दुओं से मिले। प्रतिनिधिमण्डल को सम्बोधित करते हुए बोले, “मैं स्वीकार करता हूँ कि राजग सरकार कश्मीरी हिन्दुओं की समस्या को हल करने के लिए बहुत कुछ नहीं कर पाई। गठबन्धन की कई अड़चनें थीं। फिर भी भाजपा सरकार में रहते हुए इस समस्या के बारे में अब के मुकाबले अधिक हासिल कर सकती थी।
“इस के बावजूद”, वे बोले “मैं समुदाय को विश्वास दिलाना चाहता हूँ कि विपक्ष, विशेषकर भाजपा, इस मुद्दे को संसद के भीतर और बाहर उठाएगा। मैं यूपीए सरकार पर इस मुद्दे की महत्ता को व्यक्त करता रहूँगा और इस समुदाय को न्याय दिलाने में कोई कसर नहीं छोड़ूँगा। अपनी ही मातृभूमि में इस समुदाय का सफाया कर देना दुर्भाग्यपूर्ण है और दुनिया को इस मुद्दे की ख़बर होनी चाहिए।”
यह वक्तव्य बहुत अच्छा समझें तो परिहासपूर्ण है, बुरा समझें तो धूर्तता-पूर्ण।
अब हम आड़वानी जी पर कैसे भरोसा कर लें? यदि उन्होंने सत्ता में रहते कुछ नहीं किया तो कैसे मान लें कि अब कुछ कर पाएँगे। किस को शेख़ चिल्ली की कहानियाँ सुना रहे हैं वे? विश्वास नहीं होता कि किस तरह ये राजनीतिज्ञ हर मुद्दे को वोटों की जमा-तफ़रीक में बदल देते हैं। मानववादी शर्तें भी इन स्वार्थी राजनीतिज्ञों के लिए कोई अर्थ नहीं रखतीं।
यूपीए सरकार के लिए यह एक मौका है त्रुटिनिवारण का, और दुनिया को दिखाने का कि उसका सभी समुदायों के साथ न्याय में पक्का विश्वास है। मैं चुनौती देता हूँ उन को, कि कश्मीरी हिन्दुओं के घाटी से सफाया किए जाने के कारणों का निरीक्षण करने के लिए एक जाँच आयोग बिठाएँ, इस घिनौनी कृति के लिए ज़िम्मेदार लोगों को खोज निकालें और उन्हें देश के विधान के अनुसार दंडित करें।
यदि लालू प्रसाद यादव गोधरा काँड की पुनः जाँच करने के लिए जस्टिस बैनर्जी की अध्यक्षता में जाँच समिति नियुक्त कर सकते हैं, तो गृह मन्त्री शिवराज पाटिल कश्मीरी हिन्दुओं के सफाए की जाँच के लिए आयोग क्यों नहीं नियुक्त कर सकते?
क्या यूपीए सरकार यह चुनौती स्वीकार करने को तैयार है? कोई सुन रहा है यूपीए सरकार सरकार में? कोई सुन रहा है? कोई है?
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ललित कौल “कश्मीर हेराल्ड” के सम्पादक हैं। उनके अन्य लेख पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।
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